बाबरी मस्जिद विध्वंस का फैसला: इंसाफ या इंसाफ के नाम पर स्वांग?

बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में न्याय के नाम पर जो स्वांग रचा गया वह अनापेक्षित नहीं था। भारत में करोड़ों लोगों की आंखों के सामने, सुप्रीमकोर्ट के आदेश को ठेंगा दिखाकर सभी कानूनों का धज्जियां उड़ाकर खुलेआम बाबरी मस्जिद का विशाल ढांचा ध्वस्त कर दिया गया था । न्याय के नाम पर स्वांग का पहला अध्याय तब लिखा गया जब खुलेआम अंजाम दिए गए इस मामले में फैसला आने में ही कुल 28 साल लग गये । बुर्जुआ (मतलब पूंजीवादी) कानूनी दायरे में भी एक कहावत चलता है - न्याय में देरी न्याय न मिलने के बराबर है - justice delayed is justice denied। उस पैमाने पर भी 28 साल के बाद हुआ फैसला कोई न्यायसंगत फैसला नहीं है। लेकिन, 28 साल की लंबी अवधि के बाद भी, अन्याय इस देरी तक ही सीमित नहीं रहा | लगातार दो तीन साल पूरे देश में खूनी, सांप्रदायिक प्रचार चलाया गया और इसके माध्यम से चरमपंथी हिंदू साम्प्रदायिकता को उकसाकर लाखों कारसेवकों को एकजुट कर सभी की आँखों के सामने संघ परिवार के नेताओं ने एक ढांचा को गिरा दिया। लेकिन, सीबीआई अदालत इसके लिए किसी को दोषी नहीं ठहरा सका। कितना अजीब न्याय! सभी आरोपियों को 'सम्मान' के साथ रिहा कर दिया गया है। मस्जिद ध्वस्त होने के लिए कोई भी जिम्मेदार नहीं है, कहते हैं यह एक स्वतःस्फूर्त घटना थी। अगर इसे न्याय का स्वांग नहीं कहा जाता है, तो इसके अलावा और क्या हो सकता है। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद गठित लिब्रहान आयोग के एक न्यायाधीश मनमोहन सिंह लिब्रहान ने भी टिप्पणी की - यह घटना बिल्कुल भी स्वतःस्फूर्त नहीं थी | उनके पास पर्याप्त सबूत हैं कि संघ परिवार के नेताओं ने काफी योजनाबद्ध तरीके से बाबरी मस्जिद के विध्वंस करने के घटना को अंजाम दिया हैं। वह इस बात पर टिप्पणी नहीं करना चाहते थे कि सीबीआई अदालत उन सबुतों का परवाह नहीं की या उसे अदालत में पेश किया गया था या नहीं। ऐसे ही कुछ लोगों ने खेद के साथ टिप्पणी की है कि - किसी ने बाबरी मस्जिद को ध्वस्त नहीं किया, यह अपने आप गिर गया!

जब सुप्रीम कोर्ट ने विवादित भूमि को राम जन्मभूमि मंदिर के लिए ट्रस्ट को सौंप दिया, तब शीर्ष अदालत ने भी कहा था कि बाबरी मस्जिद का विध्वंस एक आपराधिक कृत्य (criminal act) था। उस समय अनेक बुर्जुआ (पूंजीवादी) पर्यवेक्षकों/विवेचकों ने फैसले के उस हिस्से को दिखाते हुए साबित करने की कोशिश की थी की सुप्रीम कोर्ट के फैसला में दोनों पक्षों को ही देखा गया है। अब हमें नहीं पता कि फैसले के किस हिस्से में वे संतुलन की तलाश करेंगे। सीबीआई अदालत ने शायद उनके लिए कोई रास्ता खुला नहीं छोड़ा। इन दो फैसलों के साथ, भारतीय न्यायपालिका अपनी आपेक्षिक निष्पक्षता की पर्दा को अपने हाथ हटाकर ऐलान कर रही है कि वे वास्तव में किसके साथ खड़े हैं।

हालाँकि, इस फैसले का वास्तविक महत्व केवल यह नहीं है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के लिए जिम्मेदार लोगों को, जिन्हें उच्चतम न्यायालय ने आपराधिक कृत्य घोषित किया है, उस अपराध के लिए दंडित नहीं किया गया। इस निर्णय का वास्तविक महत्व इस तथ्य में निहित है कि यह निर्णय यह साबित करता है कि संघ परिवार का फासीवादी अभियान कहाँ तक बढ़ गया है जहाँ वे लोग न्यायपालिका सहित राष्ट्र के विभिन्न हिस्सों पर अपना वर्चस्व लगभग पूरा कर लिया है। संघ परिवार के इस फासीवादी अभियान का लक्ष्य सिर्फ बाबरी मस्जिद को गिराना और राम जन्मभूमि मंदिर का निर्माण करना नहीं है, यह कभी नहीं था। यह बहुसंख्यक हिंदू लोगों के बीच सांप्रदायिक तनाव को बढ़ाने और देश भर में सांप्रदायिक विभाजन पैदा करके देश को हिंदू राष्ट्र की ओर ले जाने का एक अवसर है। इस फासीवादी हिंदू राष्ट्र का लक्ष्य केवल अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाना ही नहीं है, बल्कि सभी उत्पीड़ित लोग जो थोड़ा कुछ लोकतांत्रिक अधिकार का लाभ उठाते थे उसे भी छीन कर भारत को ऐसे एक राष्ट्र में तब्दील करना, जहां लोकतंत्र बिल्कुल भी मौजूद नहीं रहेगा | आर्थिक तौर पर शोषित वर्गों पर शासक बड़े बुर्जुआ के नेतृत्व में मुख्यतः बड़े बुर्जुआ यानी पूंजीपति वर्ग और उनके साथ ग्रामीण शोषकों का अंधाधुंध शोषण का राज मौजूद रहेगा और सामाजिक रूप से मुख्य रूप से हिंदी पट्टी के उच्च जाति के हिंदुओं का वर्चस्व रहेगा, | बाकी सब उनके पैर तले दबे होंगे। मजदूर वर्ग सहित सभी मेहनतकशों के लिए ख़तरे की बात यह है कि संघ परिवार और भाजपा वास्तव में स्वार्थ रक्षा कर रही है साम्राज्यवाद के ऊपर भरोसेमंद बड़े बुर्जुआ (पूंजीपतियों) का और वे शासक बुर्जुआ के स्वार्थ में मजदूर वर्ग पर हमला कर रहे हैं और करते रहेंगे । इस काम में भाजपा अपनी स्वयं की फासीवादी शक्ति का उपयोग कर रही है और इस कारण शासक वर्ग के अन्य राजनीतिक प्रतिनिधियों की तुलना में मज़दूर वर्ग और जनता पर अधिक आक्रामक तरीके से हमला करने में सक्षम हो रही है । मुंह से चाहे जितना ही शोर शराबा क्यों न करे, सभी स्थापित राजनीतिक दल प्रत्यक्ष तौर पर न होने पर भी अप्रत्यक्ष रूप से इस अभियान में उनको मदद किये हैं और अभी भी कर रहे हैं । उनके पास संघ परिवार के फासीवादी अभियान को रोकने की चाहत या ताकत कुछ भी इन लोगों का नहीं है। वे लोग ज्यादा से ज्यादा सत्ता में जाने के लिए भाजपा के खिलाफ लोगों के विरोध का उपयोग करने की कोशिश करेंगे। संघ परिवार के फासीवादी अभियान को, तमाम मेहनतकश लोगों को संगठित कर मजदूर वर्ग को ही रोकना होगा । वह ताकत शायद अभी तक नहीं देखी जा सकी है। लेकिन, सिर्फ मज़दूर वर्ग के पास ही वह ताकत है। तथाकथित कम्युनिस्ट नामधारी सुधारवादी पार्टियों ने मज़दूर वर्ग की स्वतंत्र ताकत को जगाने के बजाय उन लोगों को पार्टी के पेटीबुर्जुआ (यानी निम्न पूंजीपति वर्ग) नेतृत्व का अनुयायी कर रखे थे। उस नेतृत्व के विश्वासघात के परिणामस्वरूप, मजदूर वर्ग अब बिखरी हुई है। मज़दूर वर्ग को खुद आज अपनी स्वतंत्र ताकत को जगाना होगा, जिसके बल पर वह न केवल फासीवाद के अभियान का विरोध करेगा, बल्कि समाज को शोषण से मुक्ति के मार्ग पर ले जाएगा। बाबरी मस्जिद के फैसले ने इस आह्वान को अगुवा सर्वहारा के समक्ष पेश कर रहे है - उठो, जल्दी से खड़े हो जाओ, खुद एकजुट हो, तमाम मजदूरों को संगठित करो, फासीवाद के इस अभियान का सामना करने के लिए तैयार हो जाओ।

2 अक्टूबर, 2020 सर्वहारा पथ




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